2014-07-19

"रद्दी कागज" (कविता)

अमरकान्त अमर

हमरे                                        
आइ
हमरा
बिसरि गेल ।
हम कहिओ
नहि सोचने छलहुँ
मुदा,
बात बिपरित ।
ठीक छैक,
ओकर ओहने सोँच ।
मोन पड़ैया
ओकर वचपन
तऽ
हृदय कलैप जाइए ।
की ? लोक
इएह
दिन लेल
कोनकोन
बेलना नहि बेलैए ।
की जाने गेलै
मायक सिनेह
बापक दुलार ।
शायद,
स्मरण आबि जाइक
किएक तऽ
ओहो
आइ
ककरो माय आ बाप छैक ।
जेना
आइ
अपन वच्चाकेँ
सिनेह करैए
काल्हि
ओकरो
ओहिना
किओ करैत छल ।
वच्चा
दुध नहि पिबए
तऽ
मायक छाती
कनकनाए लागए
भूखलो रहि
ओकर
पेट भड़ए ।
मुदा,
आइ
वच्चा
अपनेसँ
दूर भागए ।
ओकर अपने
ओकरा बोझ बुझाए ।
केश पकिते
हमरा
रद्दी कागज बुझए लागए।
मुदा,
ओकरा
बुझए पड़ैतक
रद्दी कागज सेहो
काज अबैत छैक ।
ओकर अज्ञानता
ओकरा घेरि लेने छैक ।
कहिओ
ओकरो केश पकतैक ।
ओकरो सहारा
चाहबे करी
ई चक्रमे
सभकेँ घुमए पड़त
एहि सत्यकेँ
नकारल सेहो नहि जा सकैया ।
तखन
कहब व्यर्थ
सभक स्वतन्त्रता
२१ म सदीक बात थिक ।
बुढ़ो माय बापकेँ
परिवर्तित होएब आवश्यक ।

साभार मैथिली पृष्ठ गोरखापत्र २०७१ साउन २ गते 

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